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बौद्धिक निष्ठा तथा सत्य वर्तमान समय में स्पष्टतया अवांछित हैं। इन्हें ‘राजनैतिक औचित्य’ द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया है। ऐसा क्यों हुआ, रहस्य है किंतु मुख्यधारा में सम्मिलित मीडिया एवं ऐसी अन्य संस्थायें ‘राजनैतिक रूप से उचित’ धारणा का पुरजोर समर्थन दे लागू करती हैं। वे प्रभावशाली ढंग से हमारी सोच की दिशा तय करती हैं चाहे वह सहज समझ के विपरीत ही हो।
उदाहरण के लिये सन् 1999 में पोप ने जब भारत में घोषणा की थी कि चर्च 21 वीं सदी तक एशिया में ईसाई मजहब पूर्णतया स्थापित कर देगा तो मीडिया ने इसे साधारण घटना की भाँति प्रस्तुत किया। जो भी हो, चर्च का कर्तव्य सम्पूर्ण विश्व में ईसाई धर्म का प्रसार करना है और ऐसा कर के पोप अपने कर्तव्य का पालन कर रहा है।
जब जाकिर नाइक जैसों द्वारा हिन्दुओं का मुस्लिम मजहब में सामूहिक धर्म परिवर्तन किया जाता है तो मीडिया ऐसी घटनाओं को अनदेखा करती है अथवा यह सन्देश देती है कि ऐसी घटनायें सामान्य हैं। अंततोगत्वा इस्लाम का प्रसार भी तब तक होना चाहिये जब तक कि सारी मानवता मुसलमान न हो जाय।
लेकिन जब कोई हिन्दू समुदाय हिन्दू धर्म से परे अन्य मजहबों को स्वीकार कर चुके लोगों को पुन: हिन्दू धर्म में प्रतिस्थापित करने का प्रयास करता है तो मीडिया सहसा उत्तेजित हो जाती है। उनके अनुसार ऐसे हिन्दू समूह साम्प्रदायिक एवं विभाजनकारी शक्तियाँ हैं जो हमारे विविधतापूर्ण ढाँचे को अस्त व्यस्त करना चाहती हैं तथा एक असहिष्णु हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना चाहती हैं। कई दिनों तक टीवी चैनलों पर ऐसी घटनाओं की निन्दा की जाती है।
प्रश्न यह है कि मीडिया ऐसी घटनाओं की ग़लत व्याख्या क्यों प्रस्तुत करती है? जब कि सत्य इसके विपरीत होता है। तीन पंथों को देखें तो केवल हिन्दू अथवा सनातन धर्म ही ऐसा है जो विभाजनकारी तथा साम्प्रदायिक नहीं है। मात्र यही शाश्वत धर्म समस्त सृष्टि को एक कुटुम्ब के रूप में देखता है। यही धर्म बिना किसी निबन्धन के ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सिद्धांत को परिलक्षित करता है।
इसके विपरीत ईसाई मजहब तथा इस्लाम आध्यात्मिक क्षेत्र में नये हैं। ये मनुष्य जाति को आस्तिक एवं नास्तिक के रूप में विभाजित करते हैं। उनके अनुसार ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखने वाले सही हैं तथा अनीश्वरवादी ग़लत। परमात्मा आस्तिकों से प्रेम करता है तथा वे स्वर्ग जा सकते हैं जबकि नास्तिक सदाचार से जीवन जीने के उपरांत भी परमात्मा द्वारा नर्क में धकेल दिये जाते हैं। इन सभी दावों के पीछे कोई ठोस आधार नहीं है। क्या ये प्रमाणरहित परिकल्पनायें असत्य होने के अलावा साम्प्रदायिक तथा विभाजनकारी नहीं हैं?
‘विभाजनकारी शक्तियाँ’ शब्द निष्पक्ष रूप से ईसाई तथा इस्लाम मजहबों के लिये प्रयुक्त होना चाहिये न कि हिन्दू धर्म के लिये। केवल यह सुझाव ही तथाकथित उदारपंथी अभिजात्य वर्ग को उद्वेलित कर देगा। वे पूर्णरूपेण आश्वस्त हैं कि केवल हिन्दू धर्म ही विभाजनकारी है तथा इसका प्रसार रोका जाना चाहिये। किंतु वे इतने आश्वस्त क्यों हैं?
इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिये हम 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में चलते हैं, जब सर्वप्रथम वेदों का ज्ञान पाश्चात्य विश्वविद्यालयों में पहुँचा था। वहाँ का प्रबुद्ध वर्ग इस प्राचीन ज्ञान से अत्यंत प्रभावित हुआ तथा इसके बारे में और अधिक जानना चाहता था।
वोल्तेयर, मार्क ट्वेन, शोपेनहावर, श्लेगल बन्धु, पॉल डेंसेन तथा ऐसे कई प्रतिभाशाली व्यक्तित्व भारत की विरासत का महिमामण्डन कर चुके थे। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हाइजनवर्ग, श्रोडिंगर, पौली, ओपेनहाइमर, आइंस्टीन और टेस्ला जैसे वैज्ञानिकों के शोधकार्य वेदांत से प्रभावित थे तथा उन्हों ने इस तथ्य को स्वीकार किया था।
मुझे इसका कारण तब समझ में आया जब हाल ही में मैंने पढ़ा कि वोल्तेयर ने भी वेदों को मानवता को प्राप्त सबसे बड़ा उपहार माना था। वोल्तेयर चर्च के विरोधियों में अग्रणी थे। इस कारण उन्हें कारागार भी जाना पड़ा। स्पष्ट है कि चर्च यह जान कर आश्चर्यचकित नहीं था कि पाश्चात्य बुद्धिजीवी भारतीय ज्ञान को ईसाई मजहब से श्रेष्ठ मानते थे। चर्च को आशंका इस बात की थी कि वह अपने अनुयायी उसी प्रकार खो देगा जिस प्रकार उसने चर्च के विरुद्ध होने का साहस करने वालों को दण्ड देने के अधिकार खोये थे।
ईसाई विचारधारा जो स्वर्ग के निवासी सच्चे ईश्वर में आस्था रखती है, अन्य देवी देवताओं से ईर्ष्या भाव रखती है। यह उन सभी को नर्क की शाश्वत आग में झोंक देती है, जिन्होंने ईसाई मजहब स्वीकार नहीं किया है। ईसाइयत की यह अवधारणा ब्रह्म की उस भारतीय अवधारणा से बराबरी नहीं कर पाई, जो चराचर जगत के विभिन्न स्वरूपों में उसी प्रकार व्याप्त होता है जिस प्रकार विभिन्न तरंगों में समुद्र व्याप्त होता है।
“ब्रह्म वह नहीं है जिसे आँखों से देखा जा सके बल्कि वह है जिसकी महिमा से आँखें देखने में सक्षम होती हैं। ब्रह्म वह नहीं है जिसका मन से मनन किया जा सके, ब्रह्म वह है जिसकी महत्ता से मन मनन करता है।” – केनोपनिषद1
ब्रह्म के सम्बन्ध में ऐसी गूढ़ विचारधाराओं ने ईसाइयत के उस व्यक्तिगत ईश्वर के समक्ष चुनौती खड़ी कर दी, जो किसी अन्य रूप वाले ईश्वर में आस्था रखने वालों को निर्दयतापूर्वक सज़ा देता है। चर्च इस बात से निश्चित रूप से चिंतित होगा कि ईसाई ईश्वर को उसके अनुयायिओं को काबू में रखने और उनका दमन करने के लिये चर्च का एक आविष्कार माना जायेगा। यह बात सत्य के अत्यंत निकट है किंतु जनसाधारण इसकी सत्यता नहीं जान पाया।
अंत: यह कहना तर्कसंगत होगा कि चर्च ने राज्य के सहयोग से, जिसका कि उद्देश्य भी पाश्चात्य गुरुता को अक्षुण्ण रखना था, भारत की महान सभ्यता को कलंकित करने की व्यूहरचना की। यह व्यूहरचना सरल तथा जाँची परखी थी:
सम्पूर्ण विश्व के विद्यार्थियों को हिन्दुत्व के बारे में नकारात्मक तथ्य पढ़ाओ (अंग्रेजी भाषा में समस्त हिन्दू परम्पराओं के साथ ‘वाद’ जोड़ दिया गया जिससे वे संकीर्ण कट्टर प्रतीत होने लगे।) और लगभग पन्द्रह वर्षों पश्चात नई पीढ़ी सनातन धर्म के बारे में कुछ भी जानना तक नहीं चाहेगी। उन्हें यह विश्वास हो जायेगा कि हिन्दू धर्म व्यर्थ है क्योंकि उनके अध्यापक ऐसा कहते हैं!
और वे ‘नकारात्मक’ दृष्टिकोण क्या थे जो विद्यार्थियों को हिन्दुत्व से सम्बद्ध करते थे? मुख्यतः ‘दमनकारी वर्ण व्यवस्था’ तथा दूसरा ‘मूर्तिपूजा’।
सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि प्राचीन ज्ञान के स्रोत के रूप में इस नीति का भारत में क्रियान्वयन हुआ। थॉमस मैकाले ने सही विश्लेषण किया था कि भारत की सांस्कृतिक विरासत इसकी मेरुदण्ड है तथा ब्रिटिश साम्राज्य को देशवासियों को अधीन करने हेतु यह विरासत छिन्न भिन्न करनी आवश्यक है। मैकाले की इस सलाह का अनुकरण किया गया और संस्कृत शिक्षा प्रणाली को अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली से प्रतिस्थापित कर दिया गया। इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात यह थी कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भी अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली जारी रही। मैकाले की रणनीति काम कर गई।
एक छोटे बावेरियन प्राथमिक विद्यालय में रहते हुये भी मैं जानती थी कि भारत में घोर जाति प्रथा एवं अस्पृश्यता विद्यमान है। हम निर्धन और दयनीय भारतीयों के चित्र देखते थे और वे हम पर अपने अमिट प्रभाव छोड़ते थे। उस समय मैं जर्मनी में हुये यहूदियों और जिप्सियों के सर्वनाश के बारे में कुछ नहीं जानती थी। उच्च माध्यमिक विद्यालय में हमें प्रभावित करने हेतु हमारे लैटिन अध्यापक वृत्तचित्रों के माध्यम से यह दिखाते थे कि जर्मन यातना शिविरों में क्या होता था!
हमें विद्यालयों में न तो यह बताया गया कि सभी समाजों में एक जाति या वर्ग व्यवस्था होती है और न यह कि समाज का मानव शरीर के सदृश वैदिक निरूपण वास्तव में अद्भुत था। जाति का सिद्धांत स्वयं में दोषपूर्ण नहीं है। हर समाज को एक संरचना की आवश्यकता पड़ती है। निम्न जातियों को हेय दृष्टि से देखना अनुचित है, तब भी यह यह सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त एक मानवीय दुर्बलता है जिसका समर्थन पवित्र शास्त्रों द्वारा नहीं किया गया है।
चूँकि यह दावा कि ‘भारत में सबसे घोर जातिवाद है’, तब सनातन धर्म तथा हिन्दुओं को अपमानित और हतोत्साहित करने की रणनीति रहा, उनसे निष्पक्ष विवेचन की कोई अपेक्षा नहीं रखी जा सकती थी। यह स्थिति आज भी है। यदि निष्पक्ष विवेचन किया गया रहता तो यह स्पष्ट हो जाता कि भारतीयों की तुलना में अरबों एवं श्वेतों द्वारा मानवता के विरुद्ध किये गये अपराध कहीं बहुत बढ़ चढ़ कर थे। दासता, उपनिवेशवाद, अमेरिकियों का ईसाईकरण, मुस्लिम आक्रमण और वर्तमान समय में भी महिलाओं के साथ जारी भेदभाव, विशेषकर यहूदियों तथा अश्वेतों के विरुद्ध नस्लभेद, मजहब के नाम पर क्रूर दमन और आतंकवाद ने लक्ष लक्ष मनुष्यों का जीवन लील लिया।
भारतीय उन सबके भयावह क्रूरकर्मा इतिहास के पासंग भी नहीं और उन्हें रक्षात्मक होने की आवश्यकता नहीं है। तब भी हिन्दू उनके बुने जाल में फँस जाते हैं और रक्षात्मक हो जाते हैं। वे पिछड़ी जातियों या महिलाओं के पक्ष में और अधिक कानून बनाते हैं, किंतु निश्चित रूप से वे उन्हें संतुष्ट नहीं कर सकते जो संतुष्ट नहीं होना चाहते हैं।
भारतीय और विदेशी मीडिया में हिन्दुओं और उनकी परम्पराओं पर द्वेषपूर्ण आक्रमण जारी हैं, जिनके कर्णधार प्राय: हिन्दू नामधारी ‘मैकाले मानसपुत्र’ ही हैं। ऐसे आक्रमणों का भी वही उद्देश्य है जो मतारोपण द्वारा बच्चों को हिन्दू धर्म के बारे में विकृत और कपटपूर्ण जानकारी देने के पीछे है: भारतीय परम्परा की गहनता तथा गाम्भीर्य को कोई न जान पाये, हिन्दू तो और नहीं!
भारत और विश्व के सौभाग्यवश आज भी संस्कृत के विद्वान पण्डित विद्यमान हैं फिर भी मुख्यधारा में सम्मिलित लोग, विशेषत: युवजन, प्रेरणा प्राप्त करने हेतु पश्चिम की ओर उन्मुख होते हैं , जो उन्हें अंततोगत्वा दिशाहीन और विमूढ़ बना देते हैं।
क्या यह परिस्थितियों को ठीक करने का समय नहीं है? उदाहरण के लिये, विविध मतावलम्बियों वाली अगली वार्त्ता बैठक में अपना ढंग बदलिये और असुविधाजनक प्रश्न पूछिये, पूछिये कि ईसाइयत और इस्लाम किस आधार पर दावा करते हैं कि परमात्मा जो कि हम सबका सर्जक है, इतना निर्दयी एवं अन्यायी है कि वह सभी हिन्दुओं समेत करोड़ों मनुष्यों को बस एक जीवन जीने के कारण ही अनंत काल तक के लिये नर्क में झोंक देता है, भले वह जीवन कुछ दिन का ही क्यों न रहा हो या नेकी, सदाचार और सर्वोत्तम निष्ठा के साथ सौ वर्ष तक जिया गया हो?
यदि वे यह कहते हैं कि स्वयं परमात्मा ने ही इस सत्य का प्राकट्य किया है तो उनसे कहिये कि वेद (एवं अन्य धर्मग्रंथ) भी परमब्रह्म ने प्रकट किये हैं और वेद यह दावा करते हैं कि परमब्रह्म हम सभी में परम आनन्द रूपी चेतना के रूप में विद्यमान है और कोई भी शाश्वत रूप से अभिशप्त नहीं होता। सभी को स्वयं की दैवीय चेतना की अनुभव लब्धि करने के अवसर पर अवसर प्राप्त होते हैं।
अतएव चूँकि मत मतांतर विविध हैं, इस बारे में एक प्रज्ञ विमर्श की आवश्यकता है कि उन सबमें से किसके सत्य होने की सबसे अधिक सम्भावना है और जिसे सम्भवत: सत्य सिद्ध भी किया जा सकता है। हालाँकि, ईसाई और मुस्लिम प्रतिनिधि सत्य में रुचि न रखने वाले हो सकते हैं क्योंकि ऐसा करने से उनकी समस्त धार्मिक व्यवस्था का वह आधार ही संकट में पड़ जायेगा जो कि (केवल) असत्यापनीय मताग्रहों में अन्धविश्वास भर है।
अंत:, (किसी) संलाप या संवाद में सत्यनिष्ठा सुनिश्चित करने का दायित्त्व हिन्दू प्रतिनिधियों का है। वे (कदाचित मजहबी क्षुद्रता से पेट पालने वालों के अतिरिक्त) ईसाइयों एवं मुस्लिमों समेत सम्पूर्ण मानवता के हितार्थ अपने उत्तरदायित्त्व का निर्वहन करें।
अनेक ईसाई नास्तिक बन गये क्योंकि उनका उस तथाकथित ‘ईश्वर’ पर विश्वास नहीं रहा, किंतु उन्हें इसका भान ही नहीं था कि ईश्वर के सम्बन्ध में एक नितांत भिन्न दृष्टिकोण सम्भव हो सकता है, जो अनीश्वरवादी विचारधारा से अधिक समझदारी भरा है। यह दृष्टिकोण भारतीय ऋषियों का दृष्टिकोण है।
हिन्दू धर्म का प्रसार मानवता के हितार्थ आवश्यक है। यदि हिन्दू धर्म को भली भाँति जान लिया जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि इसका चित्रण मानवता के लिये सबसे निकृष्ट विकल्प के रूप में किया गया ताकि किसी को पता न लगे कि यह वास्तव में सर्वश्रेष्ठ विकल्प है।
मारिया विर्थ
अनुवादक डॉ.भूमिका ठाकोर
It was translated at the request of maghaa.com and published there in two parts.
9 Comments
Wonderful article !
Excellent writing. If indians have desire to know truth they can find but if someone has no hunger, you can’t make them eat.
So True, The brave souls of Humanity are only few and you are one of them.
Mariya ji As always.. Great.. i don’t know the exact reason behind it and may b i m true or wrong but we can find that Nowadays India is now becoming (just a beginning) more conscious towards their own ancient values (Vedas, Upanishads, Gita, Mahabharata, Yoga and much more), of-course its not a sudden huge change its a long long way to go but surely its happening. Thanks to u and people like Vinay Jha ji n all others making their great efforts. n plz. forgive me for my bad english language… कोटि कोटि वंदन आपको मारिया जी… ॐ
Very sorry, saw only now that many comments had landed in junk which I never checked… thank you for your comment.
super one.
बिलकुल सही है और जो पश्चिमी लोगो द्वारा भारतीय संस्कृति को छिपाया गया है उसको सबके सामने प्रकट करना चाहिए और इसकी महानता सिद्ध करनी चाहिए
Atyabashak.Most necessary its propagation.
Thought provocative and very interesting. Kudos – Acharya